रायसेन के किले का जौहर भी एक शिलालेख ।। रायसेन का जौहर 6 मई सन 1532 ई की 488 वर्षगाँठ पर विशेष।

     मालवा में तोमर राज्य के संस्थापक सलहदी -
      लेखक । रूपेश उपाध्याय ,संयुक्त कलेक्टर
  आधार -  डॉ हरिहर निवास द्विवेदी कृत मालवा के   
                    तोमर आलेख



     जब ग्वालियर में राजा मानसिंह तोमर का राज्य था उसी समय मेवाड़ के राणा संग्रामसिंह के सहयोग से ग्वालियर के एक तोमर सामन्त द्वारा मालवा में अपना राज्य स्थापित करने का प्रयास आरम्भ कर दिया था। इस राज्य का संस्थापक सलहदी था।
            रायसेन गढ़ के शिलालेख में उसका नाम शिलाहदू पढ़ा गया है। उसे सलहदी , पुरविया , जंगला, और सलाहउद्दीन नाम से भी जाना गया।
       बाबर ने अपने ग्वालियर के विवरण में उसका जन्म स्थान सूखजना लिखा है जो वर्तमान में ग्वालियर तहसील के गाँव सोजना है। 
          उसका जन्म सन 1472 से 1475 ई के लगभग हुआ तथा  6 मई 1532 ई को रायसेन के युद्ध मे वह मारा गया।
              कहा जाता है कि सन 1507 ई में अवंतगढ़ युद्ध के बाद राजा मानसिंह से न बनने के कारण वह अपने भाई लक्ष्मण सेन के साथ मेवाड़ के राणा संग्रामसिंह के आश्रय में चला गया था।
              संभवतः राणा संग्रामसिंह की पुत्री दुर्गावती का विवाह सलहदी या उसके पुत्र भूपतिराय से हुआ था। मेवाड़ के राणा ने सन 1513 में  उसे भेलसा की जागीर दे दी थी।
        सुल्तान महमूद को मालवा में स्थायित्व मिलते ही सुल्तान मुज़फ्फर ने गुजरात की सेनायें बापस बुला ली। शीघ्र ही सुल्तान महमूद की कमजोरी का लाभ उठाकर सलहदी ने सारंगपुर , रायसेन तक कर लिया।
             सन1520 ई में मालवा के सुल्तान महमूद ने सलहदी के दमन भेलसा की ओर प्रस्थान किया  किन्तु सलहदी ने उसे सारंगपुर में ही पराजित कर दिया। सुल्तान मेहमूद को भागने को बाध्य होना पड़ा।
            आगामी कुछ वर्षों तक मालवा , गुजरात के सुल्तानों की ओर से कोई छेड़छाड़ न होने से  सलहदी का भेलसा , सारंगपुर रायसेन पर अधिपत्य बना रहा। उसकी राजधानी रायसेन थी। 
           यदाकदा वह सारंगपुर भी रहता था। सारंगपुर में ही 17 जून 1526 ई को नारायण दास ने उसे अपना काव्य " छिताई चरित्र " सुनाया था। सलहदी के एक राज्याधिकारी वाचनाचार्य जयवल्लभ भी थे , जो मालवा-ऋषि कहलाते थे।
            20 अप्रैल सन 1526 ई को बाबर ने पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहिम लोदी की विशाल सेना को परास्त कर भारत मे नवीन राजवंश की स्थापना कर दी। 
          अब  राणा संग्रामसिंह से बाबर का संघर्ष  होना तय हो गया। बाबर के विरुद्ध राणा के साथ जो शक्तियां एकत्र हुईं उनमें सलहदी भी शामिल था।
        16 फरवरी 1527 ई को बयाना के युद्ध मे राणा को सफलता मिली। इस युद्ध मे सलहदी राणा के साथ था। 12 मार्च 1527 को हुए खानवा के युद्ध मे भी वह राणा के साथ लड़ा किन्तु राणा के घायल होने पर फैली अफवाह के बाद सलहदी युद्ध क्षेत्र से हट गया।
            जब बहादुर शाह  ने मालव पर आक्रमण कर  मांडू किले का घेरा डाला तब सलहदी ने उसका साथ दिया। मालवा पर आधिपत्य  होने पर बहादुर शाह से सलहदी को उज्जैन का सूबा पुरस्कार स्वरूप प्राप्त हुआ। रायसेन , आष्टा की सरकार , सारंगपुर तथा भेलसा की जागीर उसके अधिपत्य में यथावत बनी रही।
                सन 1531 ई में बहादुर शाह सलहदी से रूष्ट हो गया । उसे उसने बुलबाया और 27 दिसंबर 1531 ई को छल पूर्वक कैद कर लिया। उसके पुत्र भूपतिराय को सूचना मिलते ही वह चित्तौड़ चला गया।
                 बहादुर शाह ने तत्परता से सलहदी के आधिपत्य के क्षेत्रों उज्जैन आष्टा , सारंगपुर ,भेलसा आदि पर अधिकार कर मुस्लिम अमीरों को जागीर में दे दिया। भेलसा के मंदिरों को नष्टभ्रष्ट किया गया।
           17 जनवरी 1532 की सलहदी को लेकर बहादुर शाह रायसेन किले के सामने पहुँचा। रायसेन किले की रक्षा कर रहे सलहदी के भाई लक्ष्मण सेन , रायसेन ने राजपूतों की सेना के साथ उस पर हमला कर उसे भगाने का प्रयास किया ,किन्तु बे विफल रहे। अगले दिन ही रायसेन किले का घेरा प्रारंभ हुआ।
                पराजय की आशंका , अपने परिवार को बचाने के लिए सलहदी स्वयं मुसलमान बनने , तथा रायसेन का किला बहादुर शाह को देने के लिए तैयार हो गया । 
                उसने विधिवत इस्लाम धर्म स्वीकार किया तथा अपने भाई लक्ष्मण सेन को किले से बुलाकर किला बहादुरशाह को देने का आग्रह किया किन्तु वह तैयार नही हुआ। तब बहादुर शाह ने सलहदी को कैद कर माण्डू के किले में भिजवा दिया।
         रायसेन किले का घेरा और सख्त कर दिया गया जब कोई उम्मीद नही रही तब लक्ष्मण सेन ने अप्रैल 1532 में  बहादुर शाह से आग्रह किया कि सलहदी को माण्डू बुलबा लिया जाए ताकि उसकी उपस्थिति में रायसेन का किला सौंपा जा सके।
         सलहदी को माण्डू से बुलबा लिये जाने पर  6 मई 1532 को सलहदी की पटरानी दुर्गवाती द्वारा सलहदी को रायसेन दुर्ग पर भेजने के लिए बहादुरशाह से निवेदन किया गया जो स्वीकार हुआ।
                सलहदी जब किले में पहुँचा तो उसकी पटरानी दुर्गवाती और भाई लक्ष्मण सेन ने उसकी भर्त्सना की । रानी  दुर्गवाती ने कहा -
                      " ओ सलहदो ! तुम्हारे जीवन का अंत निकट ही है। क्यो अपने गौरव और मान-मर्यादा को नष्ट करते हो। हमने तो निश्चय कर लिया है की हम स्त्रियाँ जौहर का चिता पर जल जायेंगी और हमारे वीर पुरुष लड़ते हुए खेत रहेंगें। अगर तुम में कुछ भी लज़्ज़ा शेष है तो हमारा साथ दो।"
             सलहदी का शौर्य जाग्रत हुआ और वह अपने भाई लक्ष्मण सेन के साथ लड़ने मरमिटने के लिए कृत - संकल्प हो गया ।
      6 मई 1532 ई को रायसेन किले में यह जौहर हुआ और उसी दिन सलहदी भी अपने भाई और राजपूत सेना के साथ लड़ता हुआ मारा गया।
               रायसेन किले पर बहादुर शाह का अधिपत्य हो गया। सलहदी के अधिपत्य का क्षेत्र जिसमे भेलसा , चँदेरी ,रायसेन आदि कालपी के भूत पूर्व शासक सुल्तान आलम लोदी को दे दिया गया। सलहदी के विस्तृत राज्य का अंत हो गया।
            ज्ञात होता है कि रायसेन के जौहर के बाद  बहादुर शाह ने सलहदी के शव का अंतिम संस्कार इस्लाम की रीति से करवाया और गढ़ की मस्जिद समीप उसे दफना कर मजार बनबा दिया।
           पीर सलाहुद्दीन का मज़ार आज भी रायसेन दुर्ग पर स्थित है जो हिन्दू मुस्लिम दोनो के द्वारा पूजित है। तोमर वंश के इस अत्यंत महत्वाकांक्षी और उद्दाम व्यक्तित्व के जीवन का अंत इस प्रकार हुआ।
 ◆ रूपेश उपाध्याय
        संयुक्त कलेक्टर
 ◆ आधार -  डॉ हरिहर निवास द्विवेदी कृत मालवा के   
                    तोमर आलेख